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माँ भद्रकाली मंदिर परिसर
ईटखोरी,
चतरा (झारखण्ड)
उत्सव’ का अर्थ है जीवन में नई चेतना की संचार करना। हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है। इस देश में ये उत्सव हमारे मन में अपनी संस्कृति की समझ पैदा करते हैं। हमारी उत्सवधर्मि ता समाज को एकसूत्र में बांधने में सहायक है और हमें संगठि त होकर जीना सि खाती है, सहभागि ता और आपसी समन्वय की सौगात देती है। एक साथ कोई उत्सव मनाने से न केवल समाज की नींव मजबूत होती है, बल्कि हर स्तर पर सौहार्द और मेल-मि लाप बढता है। ईटखोरी महोत्सव का आयोजन इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर चतरा जिला प्रशासन की तरफ से कि या जाता है। इसका उद्देश्य है कि समाज में मानवीय गुणों की स्थापना हो और लोगों के बीच प्रेम और एकता बढे। यह महोत्सव यहां के लोगों के जीवन में नए उत्साह का संचार करने का एक प्रयास है जि ससे लोगों के जीवन में गति बनी रहे। झारखण्ड की संस्कृति जि स पर आदि धर्म और लोक वि ष्वास का गहरा प्रभाव है और लोगों में अदृश्य, अव्यक्त, अभौति तथा आत्मि क षक्ति यों पर अटूट वि ष्वास है। ईटखोरी महोत्सव का उद्देश्य लोगों को इस संस्कृति की तरफ वापस आने के लि ए प्रेरि त करना भी है। इस महोत्सव का प्रयास होगा की संभावनाओं से भरे राज्य झारखंड के लोगों के लिए उनके वि चार में सकारात्मकता की भावना भर सके। ईटखोरी महोत्सव झारखंड के वि कास प्रक्रि या की गजंू सनु ाने का प्रयास है। यह महोत्सव इस बात पर इतराने का अवसर भी है कि झारखंड भारत में सांस्कृति क वि रासत का अद्भुत प्रति नि धि है। यह महोत्सव न केवल पूरे देश को बल्कि पूरे विश्व को यह बताने का दि न है कि झारखंड अपनी तमाम चुनौति यों के बावजूद भी श्सर्वे भवंतु सुखि नःश्की स्थापना करने के प्रयास में अग्रणी है।
यदि तुम देखना चाहते हो की अंततः बोधि-ज्योति कहाँ प्रकाशित हुई तो
“सहस्त्र उद्यानों” की स्थली पहुँचकर उत्तर-पश्चिम दिशा में तब तक चलते
जाओ जब तक गंगा की घाटी में तुम्हारे पाँव उन पहाड़ियों पर न पड़े जहाँ
से “निरंजना” और “मोहना” नदियों की पतली धाराएँ निकलती है। इन दोनों
नदियों का अनुसरण करते हुए घुमावदार मार्ग, चैड़े पत्तों वाले महुआ के वृक्षों
के नीचे और बेर तथा झाड़ियों के जंगलों से होते हुए तब तक चलते रहो
जब तक इन दोनों चमकती हुई बहनों का समतल भूमि पर फल्गु में मिलन
नहीं हो जाता। गया और बराबर पहाड़ी की शुभस्थली पहुँचने पर फल्गु नदी
के किनारे एक काँटों भरी खुली धरती है। यहाँ के बालू के पहाड़ों ओर टीलों
की सुषमा दर्शनीय है। इस स्थान को प्राचीन काल में उरूवेला के नाम से
जाना जाता था।
इटखोरी संगम है विभिन्न पंथों (प्रचलित अर्थ में ‘धर्माें’) का। यहाँ का इतिहास प्रागैतिहासिक है। भगवान बुद्ध तथा मे घामुनि की तपस्या ने इस भूमि को पवित्र किया है। पवित्र महाने व बक्सा नदी के संगम पर इटखोरी के माँ भद्रकाली मंदिर परिसर में अनादिकाल से सनातन, बौद्ध एवं जैन धर्म की आस्था की दिव्य धारा बहती चली आ रही है। सनातन धर्मावलंबियों के लिए यह पावन भूमि माँ भद्रकाली तथा सहस्र शिवलिंग महादेव के सिद्ध पीठ के रूप में आस्था का केंद्र है। वहीं बौद्धों के लिए भगवान बुद्ध की तपोभूमि के रूप में आराधना व उपासना का स्थल है। शांति की खोज में निकले युवराज सिद्धार्थ ने यहाँ तपस्या की थी। उस वक्त उनकी मौसी उन्हें वापस ले जाने आई थी। लेकिन जब सिद्धार्थ का ध्यान नहीं टूटा तो उनके मुख से ’इतखोई’ शब्द निकला जो बाद में ‘इटखोरी’ में तब्दील हुआ। जैन धर्मावलंबियों के लिए यह पावन धरा दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ स्वामी की जन्म भूमि है। प्राचीन काल में तपस्वी मेघा मुनि ने अपने तप से इस परिसर को सिद्ध करके इसे सिद्धपीठ के रूप में स्थापित किया था। भगवान राम के वनवास तथा पांडवों के अज्ञातवास की पौराणिक-धार्मिक कथाओं से माँ भद्रकाली मंदिर-परिसर का जुड़ाव रहा है। पुरातात्त्विक दृष्टिकोण से भी मंदिर परिसर काफी महत्त्वपूर्ण है। भारतीय पुरातत्त्व- सर्वेक्षण विभाग के द्वारा
वर्ष 2011-12 तथा 2012-13 में की गयी पुरातात्त्विक खुदाई के दौरान कई पुरातात्त्विक तथ्य सामने आए है। पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ नौवीं-दसवीं शताब्दी काल में मठ-मंदिरों के निर्माण की पुष्टि की है। इसके प्रमाण मंदिर के म्यूजियम में पुरावशेषो के रूप में सहेजकर रखे हुए हैं। सैंड स्टोन पत्थर को तराश कर बनाए गये प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष तथा बहुमूल्य काले पत्थरों से निर्मित प्रतिमाएँ अपने गौरवशाली अतीत की गाथा स्वयं सुनाती है। इतिहासविदों व पुरातत्त्वविदों के अनुसार नौवीं-दसवीं शताब्दी काल खंड में इस स्थल पर धार्मिक नगरी का निर्माण कराया गया था। उस वक्त यह परिसर बंगाल-मगध तथा काशी (वाराणसी) के महामार्ग का एक प्रसिद्ध पड़ाव था। 12वीं-13वीं शताब्दी काल तक इस स्थल पर सभ्यता व संस्कृति विकसित होती रही। लेकिन इसके बाद के कालखंड में किसी विध्वंस के कारण यह परिसर पूरी तरह वीरान हो गया। करीब छह सौ वर्षों तक दुनिया की नजरों से ओझल रहने के बाद 18वीं शताब्दी में स्थानीय चारवाहों व ग्रामीणों ने यहाँ जमीनदोज हुई सभ्यता व संस्कृति को ढूंढ निकाला। 1920 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी हीरानंद शास्त्री ने यहाँ का पहला पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया। इसके
बाद के वर्षों में पुरातत्त्व विभाग ने कई बार सर्वेक्षण-कार्य चलाया तथा दो बार पुरातात्त्विक खुदाई भी की। वर्तमान समय में जन-जन की आस्था से जुड़ा यह स्थल पुरातात्त्विक तथा ऐतिहासिक रूप से भी काफी महत्त्वपूर्ण बन गया है।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर अच्छी और बुरी दोनों ऊर्जा होती हैं, और ये ऊर्जाएं अपने वर्चस्व के लिए
लगातार संघर्ष करती हैं। मां भद्रकाली वह देवी है जो अज्ञान को नष्ट करती हैं, विश्व व्यवस्था को
बनाए रखती हैं, और उन लोगों को आशीर्वा द देती हैं और उन्हेंमुक्त करती हैं जो ईश्वर के ज्ञान के लिए
प्रयास करते हैं। सभी के कल्याण की इच्छा रखने के कारण ही इन्हें श्रद्धा से मां भद्रकाली कहा जाता है।
सौभाग्य से ईटखोरी की भूमि वह सिद्ध भूमि है जहां मां भद्रकाली अपने भक्तों की रक्षा और कल्याण के
लिए यहां अनादि काल से प्रकट होकर सबका कल्याण कर रही हैं। माँ की कृपा कोई अमूर्त, गैरहाजिर
विचार या कल्पना नहीं है, ये एक जीवित शक्ति है जिसे हम अपने जीवन में आमंत्रि तकर सकते हैं।
मां भद्रकाली की प्रति मा बेशकीमती काले पत्थर को तराश कर बनाई गई हैद्यकरीब 5 फीट ऊंची आदम
कद प्रति मा चतुर्भुज है प्रति मा के चरणों के नीचे ब्राह्मीलिपि में अंकित है कि प्रति मा का निर्माण 9
वीं शताब्दी काल में राजा महेंद्र पाल द्वितीय ने कराया थाद्य बौद्ध धर्म के लोग प्रति मा को मां तारा के
रूप में पूजते हैं।
शिवलिंग के दर्शन दुनिया के हर कोने में होते हैं। अनादि काल से लेकर अब तक स्थापित शिवलिंग की बनावट सामान्यतः एक जैसी ही होती है। लेकिन इटखोरी के माँ भद्रकाली-मंदिर परिसर में स्थापित सहस्र-शिवलिंग की बनावट सबसे अनोखी है। इस अद्वितीय सहस्र-शिवलिंग को एक ही पत्थर को तराशकर बनाया गया है। सहस्र-शिवलिंग में ‘1008’ शिवलिंग उत्कीर्ण है।
सहस्र-शिवलिंग का जलाभिषेक करने पर एक ही साथ सभी ‘एक हजार आठ’ शिवलिंगों का जलाभिषेक हो जाता है। सहस्र-शिवलिंग मंदिर के सामने ही नंदी की विशालकाय प्रतिमा भी स्थापित है। इस सहस्र-शिवलिंग के स्थापना का कालखंड इतिहासकारों के द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि गुप्त-वंश के कालखंड में इसकी स्थापना की गई थी। इसके पीछे उनका तर्क है कि
गुप्त वंश के शासक सनातन धर्म के संरक्षक हुआ करते थे। जबकि कई इतिहासकार व पुरातत्त्ववेत्ता सहस्र-शिवलिंग को नौवीं व दसवीं शताब्दी कालखंड का ही बताते हैं।
मंदिर परिसर में ही एक प्राचीन कनुनिया माई का मंदिर है। एक शिला में सूरज, चाँद के साथ त्रिशूल भी उत्कीर्ण है। इसी शिला में नर व नारी की भी प्रतिमा उत्कीर्ण है। पुरातत्त्वविभाग इसे सती-स्तंभ बताता है। प्राचीन काल में कनुनिया माई मंदिर ही माँ भद्रकाली मंदिर-परिसर का प्रवेश द्वार था। मंदिर या नदी के रास्ते जंगल जाने वाले लोग कनुनिया माई मंदिर में मिट्टी व लकड़ी के टुकड़े मन्नत के रूप में चढ़ाया करते थे।
मंदिर परिसर में एक अद्भुत बौद्ध-स्तूप है। इसे ‘मनौती-स्तूप’ भी कहा जाता है। बौद्ध-स्तूप में
भगवान बुद्ध की 1004 छोटी व चार बड़ी प्रतिमाएँ बनी हुई है। स्तूप में भगवान बुद्ध की एक
प्रतिमा भूमिस्पर्श मुद्रा में है जबकि दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन, तीसरी वरद तथा चैथी प्रतिमा ध्यानमुद्रा में
है। भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा महापारायण-मुद्रा में भी है। इस स्तूप को पुरातत्त्व-विभाग ने नौवीं
शताब्दी-काल का बताया है। वैसे किवदंती है कि सम्राट अशोक ने जिन चैरासी हजार स्तूपों का
निर्माण कराया था, उनमें यह स्तूप भी शामिल है। इस स्तूप के ऊपरी हिस्से में पानी का सतत संग्रह
स्वतः होता रहना कौतुहल के साथ खोज का भी विषय है।
भारतीय जीवनदृष्टि आदिकाल से ही ‘धर्म’ से प्रेरित है। यही धर्म व्यक्ति एवं समाज की धारणा करता है। धर्म ही मनुष्य को पशुओं से अलग कर इसे विशिष्ट पहचान देता है। ‘‘धर्मेणहीनाः पशुभिः समाना’’, ऐसा मनु का मत है।
धर्म ही भारत का जीवनादर्श है जिसे भगवान बुद्ध ले ‘धम्म’ कहा है।
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व तथागत बुद्ध का अवतरण इसी ‘धर्म या धम्म’ के युगानुकूल प्रवर्तन एवं मीमांषा के निमि§ा हुआ था जिसका सार्वभौमिक अर्थ सत्य, करूणा और अहिंसा है जिसके अवलंबन से ही ही व्यक्ति, समाज, राष्टऽ या विश्व में शान्ति और सद्भाव संभव है।
माँ भद्रकाली मंदिर परिसर
ईटखोरी,
चतरा (झारखण्ड)